
प्रभु श्री राम माता सीता, जो साक्षात माँ लक्ष्मी की अवतार थीं, को अग्नि परीक्षा देने के लिए क्यों कहा?
रावण वध के पश्चात् जब माता जानकी, जब श्री राम के समक्ष आतीं हैं तो सर्वप्रथम श्री राम, लक्ष्मण जी एक अग्नि कुंड बनाने का आदेश देते हैं। यद्यपि श्री राम श्री हरि के ही रूप हैं और श्री हरि इस संसार के पालनहार हैं, तथापि जब वे इस संसार में आते हैं तो वे भी अपने द्वारा रचे इस संसार के धर्माचरण को शिरोधार्य करते हैं।
लक्ष्मण जी यह आदेश पाकर बहुत क्षुब्ध हुए परंतु प्रभु के समझाने पर उन्होंने अग्नि तैयार की।
जिन्होंने रामायण या श्रीरामचरितमानस का पठन नहीं किया, उनको यह आचरण एक अन्याय से कम नहीं लगता। परंतु वास्तव में श्री राम नहीं चाहते थे कि माता सीता आने वाले दुखद समय से गुजरे इसलिए शूर्पणखा के नाक-कान कटने के पश्चात् जब श्री राम खर-दूषण का वध करते हैं तब वे माता सीता को अग्नि देवता के संरक्षण में भेज देते हैं और माता सीता की जगह उनकी एक प्रतिबिंब को अपने साथ रख लेते हैं।
श्रीरामचरितमानस के अरण्य काण्ड से ली गई इन दोहों पर ध्यान दें –
अरण्य काण्ड
लछिमन गए बनहिं जब लेन मूल फल कंद।
जनकसुता सन बोले बिहसि कृपा सुख बृंद॥
लक्ष्मणजी जब कंद-मूल-फल लेने के लिए वन में गए, तब (अकेले में) कृपा और सुख के समूह श्री रामचंद्रजी हँसकर जानकीजी से बोले
सुनहु प्रिया ब्रत रुचिर सुसीला। मैं कछु करबि ललित नरलीला॥
तुम्ह पावक महुँ करहु निवासा। जौ लगि करौं निसाचर नासा॥
हे प्रिये! हे सुंदर पतिव्रत धर्म का पालन करने वाली सुशीले! सुनो! मैं अब कुछ मनोहर मनुष्य लीला करूँगा, इसलिए जब तक मैं राक्षसों का नाश करूँ, तब तक तुम अग्नि में निवास करो
जबहिं राम सब कहा बखानी। प्रभु पद धरि हियँ अनल समानी॥
निज प्रतिबिंब राखि तहँ सीता। तैसइ सील रूप सुबिनीता॥
श्री रामजी ने ज्यों ही सब समझाकर कहा, त्यों ही श्री सीताजी प्रभु के चरणों को हृदय में धरकर अग्नि में समा गईं। सीताजी ने अपनी ही छाया मूर्ति वहाँ रख दी, जो उनके जैसे ही शील-स्वभाव और रूपवाली तथा वैसे ही विनम्र थी
लछिमनहूँ यह मरमु न जाना। जो कछु चरित रचा भगवाना॥
भगवान ने जो कुछ लीला रची, इस रहस्य को लक्ष्मणजी ने भी नहीं जाना।
इसके पश्चात् श्रीरामचरितमानस के लंकाकाण्ड भगवान श्री राम जानकी माता को अग्नि परीक्षा के बहाने अग्नि देवता के संरक्षण से बाहर निकाल लाते हैं।
लंकाकाण्ड
देखि राम रुख लछिमन धाए। पावक प्रगटि काठ बहु लाए॥
पावक प्रबल देखि बैदेही। हृदयँ हरष नहिं भय कछु तेही॥
फिर श्री रामजी का रुख देखकर लक्ष्मणजी दौड़े और आग तैयार करके बहुत सी लकड़ी ले आए। अग्नि को खूब बढ़ी हुई देखकर जानकीजी के हृदय में हर्ष हुआ। उन्हें भय कुछ भी नहीं हुआ
जौं मन बच क्रम मम उर माहीं। तजि रघुबीर आन गति नाहीं॥
तौ कृसानु सब कै गति जाना। मो कहुँ होउ श्रीखंड समाना॥
(सीताजी ने लीला से कहा-) यदि मन, वचन और कर्म से मेरे हृदय में श्री रघुवीर को छोड़कर दूसरी गति (अन्य किसी का आश्रय) नहीं है, तो अग्निदेव जो सबके मन की गति जानते हैं, (मेरे भी मन की गति जानकर) मेरे लिए चंदन के समान शीतल हो जाएँ
श्रीखंड सम पावक प्रबेस कियो सुमिरि प्रभु मैथिली।
जय कोसलेस महेस बंदित चरन रति अति निर्मली॥
प्रतिबिंब अरु लौकिक कलंक प्रचंड पावक महुँ जरे।
प्रभु चरित काहुँ न लखे नभ सुर सिद्ध मुनि देखहिं खरे॥
प्रभु श्री रामजी का स्मरण करके और जिनके चरण महादेवजी के द्वारा वंदित हैं तथा जिनमें सीताजी की अत्यंत विशुद्ध प्रीति है, उन कोसलपति की जय बोलकर जानकीजी ने चंदन के समान शीतल हुई अग्नि में प्रवेश किया। प्रतिबिम्ब (सीताजी की छायामूर्ति) और उनका लौकिक कलंक प्रचण्ड अग्नि में जल गए। प्रभु के इन चरित्रों को किसी ने नहीं जाना। देवता, सिद्ध और मुनि सब आकाश में खड़े देखते हैं
धरि रूप पावक पानि गहि श्री सत्य श्रुति जग बिदित जो।
जिमि छीरसागर इंदिरा रामहि समर्पी आनि सो॥
सो राम बाम बिभाग राजति रुचिर अति सोभा भली।
नव नील नीरज निकट मानहुँ कनक पंकज की कली॥
तब अग्नि ने शरीर धारण करके वेदों में और जगत् में प्रसिद्ध वास्तविक श्री (सीताजी) का हाथ पकड़ उन्हें श्री रामजी को वैसे ही समर्पित किया जैसे क्षीरसागर ने विष्णु भगवान् को लक्ष्मी समर्पित की थीं। वे सीताजी श्री रामचंद्रजी के वाम भाग में विराजित हुईं। उनकी उत्तम शोभा अत्यंत ही सुंदर है। मानो नए खिले हुए नीले कमल के पास सोने के कमल की कली सुशोभित हो
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