
श्री राम नवमी या राम नवमी त्योहार चैत्र नवरात्रि का एक हिस्सा है, और हिंदू वर्ष के पहले महीने चैत्र के शुक्ल पक्ष के नौवें दिन मनाया जाता है। यह आमतौर पर हर साल ग्रेगोरियन कैलेंडर के मार्च या अप्रैल महीनों में होता है। भले ही श्री राम भगवान श्री विष्णु के अवतार थे, पर वे पृथ्वी पर एक साधारण मनुष्य के रूप में रहते थे। उन्हें “पुरुषोत्तम” भी कहा जाता है। श्री राम दुनिया भर में अलग-अलग धर्मों और भौगोलिक क्षेत्रों के कई पुरुषों और महिलाओं के लिए, इस संसार का भला करने के लिए एक प्रेरणा के स्रोत रहे हैं। श्री राम अयोध्या के राजा दशरथ की चारों संतानों में सबसे बड़े और सबसे प्रिय संतान थे। राजा दशरथ श्री राम को अपने सबसे प्रिय संतान के रूप में प्यार करते थे। लेकिन जब उन्हें (ऋषि विश्वामित्र द्वारा) अवगत कराया गया कि उन्होंने भगवान श्री विष्णु के अवतार को जन्म दिया है, तो राजा दशरथ ने अपने पुत्र-प्रेम को ईश्वर-भक्ति के साथ संतुलित करने के प्रयत्नों में लगे रहे। हिंदू धार्मिक ग्रंथ इस तथ्य को स्पष्ट रूप से उजागर नहीं करते हैं। हालाँकि, इस ज्ञानोदय के बाद, राजा दशरथ का श्री राम को “श्री राम” के रूप में संबोधित करना राजा दशरथ और श्री राम के बीच वार्तालाप के कई उदाहरणों में पाया गया है।
अपने कर्मों और सभी (मित्रों, परिवार और शत्रुओं) के प्रति समान रूप से प्रेम और स्नेह रखने के कारण, श्री राम सभी के प्रिय और पूजनीय थे। श्री रामायण और श्री रामचरितमानस ऐसे संदर्भों से भरे पड़े हैं जहाँ भगवान श्री शंकर (शिव) सहित सभी ने न केवल उनकी प्रशंसा की है, बल्कि उनकी स्तुति भी की है। रामचरितमानस का लगभग आधा भाग भगवान शिव को समर्पित है जिसमें भगवान शिव अपनी अर्धांगिनी, माता पार्वती को श्री राम के अमृत-तुल्य स्वभाव का गुणगान करते हैं। साथ ही, श्री राम के शत्रुओं द्वारा पृथ्वी पर अपने-अपने जीवन के अंतिम क्षणों में गाए गए गाथागीत उल्लेखनीय हैं। मैंने श्री रामचरितमानस से कुछ ऐसे संदर्भ संकलित किए हैं जो हमें श्री राम के स्वभाव को थोड़ा और समझने में सहायक हैं।
मारीच
पहला संदर्भ मारीच का है, जो रावण के वंश के सबसे शक्तिशाली राक्षसों में से एक था। मारीच श्री राम से पहली बार तब मिले जब वे ऋषि विश्वामित्र के यज्ञ को नष्ट करने की कोशिश कर रहा था। मारीच और अन्य राक्षसों से छुटकारा पाने के लिए, विश्वामित्र को श्री राम की सहायता लेनी पड़ी, जो तब मुश्किल से १२ वर्ष की आयु के थे। जब श्री राम का बाण मारीच को लगा तो उसे समझ आया कि श्री राम कोई साधारण मनुष्य नहीं हैं और तभी वह जंगल में जाकर स्वयं एक ऋषि का जीवन व्यतीत करने लगा। बहुत वर्षों पश्चात रावण ने उसे स्वर्ण मृग के रूप में प्रच्छन्न करने के लिए आदेश दिया और रावण को श्री राम की पत्नी, माता सीता का अपहरण करने में सहायता करने का आदेश दिया। रावण को इस दुस्साहस से रोकने के लिए बहुत प्रयास करने के पश्चात्, वह अंत में समझ गया कि रावण जैसे अड़ियल के साथ बहस करने का कोई लाभ नहीं है। श्री रामचरितमानस के निम्नलिखित श्लोक उल्लेखनीय हैं –
तब मारीच हृदयँ अनुमाना। नवहि बिरोधें नहिं कल्याना॥
सस्त्री मर्मी प्रभु सठ धनी। बैद बंदि कबि भानस गुनी॥
अर्थात् – तब मारीच ने हृदय में अनुमान किया कि शस्त्री (शस्त्रधारी), मर्मी (भेद जानने वाला), समर्थ स्वामी, मूर्ख, धनवान, वैद्य, भाट, कवि और रसोइया- इन नौ व्यक्तियों से विरोध (वैर) करने में कल्याण (कुशल) नहीं होता।
उभय भाँति देखा निज मरना। तब ताकिसि रघुनायक सरना॥
उतरु देत मोहि बधब अभागें। कस न मरौं रघुपति सर लागें॥
अर्थात् – जब मारीच ने दोनों प्रकार से अपना मरण देखा, तब उसने श्री रघुनाथजी की शरण तकी (अर्थात उनकी शरण जाने में ही कल्याण समझा)। (सोचा कि) उत्तर देते ही (नाहीं करते ही) यह अभागा मुझे मार डालेगा। फिर श्री रघुनाथजी के बाण लगने से ही क्यों न मरूँ।
अस जियँ जानि दसानन संगा। चला राम पद प्रेम अभंगा॥
मन अति हरष जनाव न तेही। आजु देखिहउँ परम सनेही॥
अर्थात् – हृदय में ऐसा समझकर वह रावण के साथ चला। श्री रामजी के चरणों में उसका अखंड प्रेम है। उसके मन में इस बात का अत्यन्त हर्ष है कि आज मैं अपने परम स्नेही श्री रामजी को देखूँगा, किन्तु उसने यह हर्ष रावण को नहीं जनाया।
बाली
दूसरा संदर्भ वानरों के राज्य किष्किंधा के राजा बाली का है। बाली अपने समय के सभी प्राणियों में सबसे शक्तिशाली था। उसने रावण को भी हराया था और महीनों तक उसे अपनी बाहों में तब तक कैद करके रखा जब तक कि रावण ने अपने कुकर्मों के लिए बाली से क्षमा नहीं मांगी। रावण द्वारा माता सीता के अपहरण होने के पश्चात् माता सीता की खोज करते हुए, श्री राम बाली से मित्रता कर सकते थे लेकिन उन्होंने बाली के भाई और उनके शत्रु सुग्रीव से मित्रता करना चुना। श्री राम ने सुग्रीव को बाली से युद्ध करने के लिए प्रेरित किया और श्री राम ने छल से बाली को मार डाला। बाली उत्सुक था क्योंकि वह जानता था कि श्री राम भगवान श्री विष्णु के अवतार हैं और उन्होंने यह सवाल किया कि श्री राम भगवान विष्णु के अवतार होते हुए भी उन्होंने बाली को मारने के लिए छल का उपयोग क्यों किया ? श्री राम ने बाली को समझाया कि उन्हें छल का प्रयोग क्यों करना पड़ा और बाली को मारने के लिए छल का प्रयोग करना उनके लिए एक अन्याय क्यों नहीं था। श्री रामचरितमानस के निम्नलिखित श्लोक अपने मृत्यु से पूर्व बाली और श्री राम के बीच हुई वार्ता को दर्शते हैं।
परा बिकल महि सर के लागें। पुनि उठि बैठ देखि प्रभु आगे॥
स्याम गात सिर जटा बनाएँ। अरुन नयन सर चाप चढ़ाएँ॥
अर्थात् – बाण के लगते ही बालि व्याकुल होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा, किंतु प्रभु श्री रामचंद्रजी को आगे देखकर वह फिर उठ बैठा। भगवान का श्याम शरीर है, सिर पर जटा बनाए हैं, लाल नेत्र हैं, बाण लिए हैं और धनुष चढ़ाए हैं।
पुनि पुनि चितइ चरन चित दीन्हा। सुफल जन्म माना प्रभु चीन्हा॥
हृदयँ प्रीति मुख बचन कठोरा। बोला चितइ राम की ओरा॥
अर्थात् – बालि ने बार-बार भगवान की ओर देखकर चित्त को उनके चरणों में लगा दिया। प्रभु को पहचानकर उसने अपना जन्म सफल माना। उसके हृदय में प्रीति थी, पर मुख में कठोर वचन थे। वह श्री रामजी की ओर देखकर बोला-
धर्म हेतु अवतरेहु गोसाईं। मारेहु मोहि ब्याध की नाईं॥
मैं बैरी सुग्रीव पिआरा। अवगुन कवन नाथ मोहि मारा॥
अर्थात् – हे गोसाईं। आपने धर्म की रक्षा के लिए अवतार लिया है और मुझे व्याध (शिकारी) की तरह (छिपकर) मारा? मैं बैरी और सुग्रीव प्यारा? हे नाथ! किस दोष से आपने मुझे मारा?
अनुज बधू भगिनी सुत नारी। सुनु सठ कन्या सम ए चारी॥
इन्हहि कुदृष्टि बिलोकइ जोई। ताहि बधें कछु पाप न होई॥
अर्थात् – (श्री रामजी ने कहा-) हे मूर्ख! सुन, छोटे भाई की स्त्री, बहिन, पुत्र की स्त्री और कन्या- ये चारों समान हैं। इनको जो कोई बुरी दृष्टि से देखता है, उसे मारने में कुछ भी पाप नहीं होता।
मूढ़ तोहि अतिसय अभिमाना। नारि सिखावन करसि न काना॥
मम भुज बल आश्रित तेहि जानी। मारा चहसि अधम अभिमानी॥
अर्थात् – हे मूढ़! तुझे अत्यंत अभिमान है। तूने अपनी स्त्री की सीख पर भी कान (ध्यान) नहीं दिया। सुग्रीव को मेरी भुजाओं के बल का आश्रित जानकर भी अरे अधम अभिमानी! तूने उसको मारना चाहा।
सुनहु राम स्वामी सन चल न चातुरी मोरि।
प्रभु अजहूँ मैं पापी अंतकाल गति तोरि॥
अर्थात् – (बालि ने कहा-) हे श्री रामजी! सुनिए, स्वामी (आप) से मेरी चतुराई नहीं चल सकती। हे प्रभो! अंतकाल में आपकी गति (शरण) पाकर मैं अब भी पापी ही रहा?
सुनत राम अति कोमल बानी। बालि सीस परसेउ निज पानी॥
अचल करौं तनु राखहु प्राना। बालि कहा सुनु कृपानिधाना॥
अर्थात् – बालि की अत्यंत कोमल वाणी सुनकर श्री रामजी ने उसके सिर को अपने हाथ से स्पर्श किया (और कहा-) मैं तुम्हारे शरीर को अचल कर दूँ, तुम प्राणों को रखो (तुम्हें अमर कर दूँ)। बालि ने कहा- हे कृपानिधान! सुनिए।
जन्म जन्म मुनि जतनु कराहीं। अंत राम कहि आवत नाहीं॥
जासु नाम बल संकर कासी। देत सबहि सम गति अबिनासी॥
मम लोचन गोचर सोई आवा। बहुरि कि प्रभु अस बनिहि बनावा॥
अर्थात् – मुनिगण जन्म-जन्म में (प्रत्येक जन्म में) (अनेकों प्रकार का) साधन करते रहते हैं। फिर भी अंतकाल में उन्हें ‘राम’ नहीं कह आता (उनके मुख से राम नाम नहीं निकलता)। जिनके नाम के बल से शंकरजी काशी में सबको समान रूप से अविनाशिनी गति (मुक्ति) देते हैं। वह श्री रामजी स्वयं मेरे नेत्रों के सामने आ गए हैं। हे प्रभो! ऐसा संयोग क्या फिर कभी बन पड़ेगा?
सो नयन गोचर जासु गुन नित नेति कहि श्रुति गावहीं।
जिति पवन मन गो निरस करि मुनि ध्यान कबहुँक पावहीं॥
मोहि जानि अति अभिमान बस प्रभु कहेउ राखु सरीरही।
अस कवन सठ हठि काटि सुरतरु बारि करिहि बबूरही॥
अर्थात् – श्रुतियाँ ‘नेति-नेति’ कहकर निरंतर जिनका गुणगान करती रहती हैं तथा प्राण और मन को जीतकर एवं इंद्रियों को (विषयों के रस से सर्वथा) नीरस बनाकर मुनिगण ध्यान में जिनकी कभी किंचित् ही झलक पाते हैं, वे ही प्रभु (आप) साक्षात् मेरे सामने प्रकट हैं। आपने मुझे अत्यंत अभिमानवश जानकर यह कहा कि तुम शरीर रख लो, परंतु ऐसा मूर्ख कौन होगा जो हठपूर्वक कल्पवृक्ष को काटकर उससे बबूल के बाड़ लगाएगा (अर्थात् पूर्णकाम बना देने वाले आपको छोड़कर आपसे इस नश्वर शरीर की रक्षा चाहेगा?)
अब नाथ करि करुना बिलोकहु देहु जो बर मागऊँ।
जेहि जोनि जन्मौं कर्म बस तहँ राम पद अनुरागऊँ॥
यह तनय मम सम बिनय बल कल्यानप्रद प्रभु लीजिये।
गहि बाँह सुर नर नाह आपन दास अंगद कीजिये॥
अर्थात् – हे नाथ! अब मुझ पर दयादृष्टि कीजिए और मैं जो वर माँगता हूँ उसे दीजिए। मैं कर्मवश जिस योनि में जन्म लूँ, वहीं श्री रामजी (आप) के चरणों में प्रेम करूँ! हे कल्याणप्रद प्रभो! यह मेरा पुत्र अंगद विनय और बल में मेरे ही समान है, इसे स्वीकार कीजिए और हे देवता और मनुष्यों के नाथ! बाँह पकड़कर इसे अपना दास बनाइए।
राम चरन दृढ़ प्रीति करि बालि कीन्ह तनु त्याग।
सुमन माल जिमि कंठ ते गिरत न जानइ नाग॥
अर्थात् – श्री रामजी के चरणों में दृढ़ प्रीति करके बालि ने शरीर को वैसे ही (आसानी से) त्याग दिया जैसे हाथी अपने गले से फूलों की माला का गिरना न जाने।
कुंभकर्ण
श्री राम के शत्रुओं से प्रशंसा का अगला उल्लेखनीय उदाहरण रावण के शक्तिशाली और विशालकाय भाई कुंभकर्ण से है। यह वार्तालाप कुंभकर्ण और रावण के बीच होती है जब रावण उसे श्री राम के साथ रावण के युद्ध में भाग लेने के लिए जगाता है। और उसके पश्चात् रावण के दूसरे भाई विभीषण और कुंभकर्ण के बीच में हुई वार्ता है। ये श्री रामचरितमानस के लंका कांड के श्लोक हैं –
जागा निसिचर देखिअ कैसा। मानहुँ कालु देह धरि बैसा॥
कुंभकरन बूझा कहु भाई। काहे तव मुख रहे सुखाई॥
अर्थात् – कुंभकर्ण जगा (उठ बैठा) वह कैसा दिखाई देता है मानो स्वयं काल ही शरीर धारण करके बैठा हो। कुंभकर्ण ने पूछा- हे भाई! कहो तो, तुम्हारे मुख सूख क्यों रहे हैं?
कथा कही सब तेहिं अभिमानी। जेहि प्रकार सीता हरि आनी॥
तात कपिन्ह सब निसिचर मारे। महा महा जोधा संघारे॥
अर्थात् – उस अभिमानी (रावण) ने उससे जिस प्रकार से वह सीता को हर लाया था (तब से अब तक की) सारी कथा कही। (फिर कहा-) हे तात! वानरों ने सब राक्षस मार डाले। बड़े-बड़े योद्धाओं का भी संहार कर डाला
दुर्मुख सुररिपु मनुज अहारी। भट अतिकाय अकंपन भारी॥
अपर महोदर आदिक बीरा। परे समर महि सब रनधीरा॥
अर्थात् – दुर्मुख, देवशत्रु (देवान्तक), मनुष्य भक्षक (नरान्तक), भारी योद्धा अतिकाय और अकम्पन तथा महोदर आदि दूसरे सभी रणधीर वीर रणभूमि में मारे गए।
सुनि दसकंधर बचन तब कुंभकरन बिलखान।
जगदंबा हरि आनि अब सठ चाहत कल्यान॥
अर्थात् – तब रावण के वचन सुनकर कुंभकर्ण बिलखकर (दुःखी होकर) बोला- अरे मूर्ख! जगज्जननी जानकी को हर लाकर अब कल्याण चाहता है?
भल न कीन्ह तैं निसिचर नाहा। अब मोहि आइ जगाएहि काहा॥
अजहूँ तात त्यागि अभिमाना। भजहु राम होइहि कल्याना॥
अर्थात् – हे राक्षसराज! तूने अच्छा नहीं किया। अब आकर मुझे क्यों जगाया? हे तात! अब भी अभिमान छोड़कर श्री रामजी को भजो तो कल्याण होगा।
हैं दससीस मनुज रघुनायक। जाके हनूमान से पायक॥
अहह बंधु तैं कीन्हि खोटाई। प्रथमहिं मोहि न सुनाएहि आई॥
अर्थात् – हे रावण! जिनके हनुमान् सरीखे सेवक हैं, वे श्री रघुनाथजी क्या मनुष्य हैं? हाय भाई! तूने बुरा किया, जो पहले ही आकर मुझे यह हाल नहीं सुनाया।
कीन्हेहु प्रभु बिरोध तेहि देवक। सिव बिरंचि सुर जाके सेवक॥
नारद मुनि मोहि ग्यान जो कहा। कहतेउँ तोहि समय निरबाहा॥
अर्थात् – हे स्वामी! तुमने उस परम देवता का विरोध किया, जिसके शिव, ब्रह्मा आदि देवता सेवक हैं। नारद मुनि ने मुझे जो ज्ञान कहा था, वह मैं तुझसे कहता, पर अब तो समय जाता रहा।
अब भरि अंक भेंटु मोहि भाई। लोचन सुफल करौं मैं जाई॥
स्याम गात सरसीरुह लोचन। देखौं जाइ ताप त्रय मोचन॥
अर्थात् – हे भाई! अब तो (अन्तिम बार) अँकवार भरकर मुझसे मिल ले। मैं जाकर अपने नेत्र सफल करूँ। तीनों तापों को छुड़ाने वाले श्याम शरीर, कमल नेत्र श्री रामजी के जाकर दर्शन करूँ।
कुंभकर्ण– विभीषण संवाद
देखि बिभीषनु आगें आयउ। परेउ चरन निज नाम सुनायउ॥
अनुज उठाइ हृदयँ तेहि लायो। रघुपति भक्त जानि मन भायो॥
अर्थात् – उसे देखकर विभीषण आगे आए और उसके चरणों पर गिरकर अपना नाम सुनाया। छोटे भाई को उठाकर उसने हृदय से लगा लिया और श्री रघुनाथजी का भक्त जानकर वे उसके मन को प्रिय लगे।
तात लात रावन मोहि मारा। कहत परम हित मंत्र बिचारा॥
तेहिं गलानि रघुपति पहिं आयउँ। देखि दीन प्रभु के मन भायउँ॥
अर्थात् – (विभीषण ने कहा-) हे तात! परम हितकर सलाह एवं विचार करने पर रावण ने मुझे लात मारी। उसी ग्लानि के मारे मैं श्री रघुनाथजी के पास चला आया। दीन देखकर प्रभु के मन को मैं (बहुत) प्रिय लगा।
सुनु भयउ कालबस रावन। सो कि मान अब परम सिखावन॥
धन्य धन्य तैं धन्य विभीषन। भयहु तात निसिचर कुल भूषन॥
अर्थात् – (कुंभकर्ण ने कहा-) हे पुत्र! सुन, रावण तो काल के वश हो गया है (उसके सिर पर मृत्यु नाच रही है)। वह क्या अब उत्तम शिक्षा मान सकता है? हे विभीषण! तू धन्य है, धन्य है। हे तात! तू राक्षस कुल का भूषण हो गया।
बंधु बंस तैं कीन्ह उजागर। भजेहु राम सोभा सुख सागर॥
बचन कर्म मन कपट तजि भजेहु राम रनधीर।
जाहु न निज पर सूझ मोहि भयउँ कालबस बीर॥
अर्थात् – हे भाई! तूने अपने कुल को दैदीप्यमान कर दिया, जो शोभा और सुख के समुद्र श्री रामजी को भजा। मन, वचन और कर्म से कपट छोड़कर रणधीर श्री रामजी का भजन करना। हे भाई! मैं काल (मृत्यु) के वश हो गया हूँ, मुझे अपना-पराया नहीं सूझता, इसलिए अब तुम जाओ।
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