रावण बद, रावण की किस्मत बदतर

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रावण। हम में से जो दशहरा उत्सव के माध्यम से रावण को जानते हैं, वे उन्हें केवल माता सीता के अपहरणकर्ता के रूप में जान सकते हैं, जिन्हें बाद में भगवान राम ने मार डाला था। जैसे हर चीज़, स्थान, घटना और व्यक्ति के अच्छे और बुरे दोनों पहलू होते हैं, रावण के चरित्र में भी दो पहलू थे।

रावण कौन था?

श्री रामचरितमानस के “बालकाण्ड” में निम्नलिखित श्लोकों के अनुसार भगवान शंकर माता पार्वती को यह कथा सुनाते हैं।

जनम एक दुइ कहउँ बखानी। सावधान सुनु सुमति भवानी॥
द्वारपाल हरि के प्रिय दोऊ। जय अरु बिजय जान सब कोऊ॥

हे सुंदर बुद्धि वाली भवानी! मैं उनके दो-एक जन्मों का विस्तार से वर्णन करता हूँ, तुम सावधान होकर सुनो। श्री हरि के जय और विजय दो प्यारे द्वारपाल हैं, जिनको सब कोई जानते हैं।

बिप्र श्राप तें दूनउ भाई। तामस असुर देह तिन्ह पाई॥
कनककसिपु अरु हाटकलोचन। जगत बिदित सुरपति मद मोचन॥

उन दोनों भाइयों ने ब्राह्मण (सनकादि) के शाप से असुरों का तामसी शरीर पाया। एक का नाम था हिरण्यकशिपु और दूसरे का हिरण्याक्ष। ये देवराज इन्द्र के गर्व को छुड़ाने वाले सारे जगत में प्रसिद्ध हुए।

बिजई समर बीर बिख्याता। धरि बराह बपु एक निपाता॥
होइ नरहरि दूसर पुनि मारा। जन प्रहलाद सुजस बिस्तारा॥

वे युद्ध में विजय पाने वाले विख्यात वीर थे। इनमें से एक (हिरण्याक्ष) को भगवान ने वराह (सूअर) का शरीर धारण करके मारा, फिर दूसरे (हिरण्यकशिपु) का नरसिंह रूप धारण करके वध किया और अपने भक्त प्रह्लाद का सुंदर यश फैलाया।

भए निसाचर जाइ तेइ महाबीर बलवान।
कुंभकरन रावन सुभट सुर बिजई जग जान॥

वे ही (दोनों) जाकर देवताओं को जीतने वाले तथा बड़े योद्धा, रावण और कुम्भकर्ण नामक बड़े बलवान और महावीर राक्षस हुए, जिन्हें सारा जगत जानता है।

रावण की अच्‍छाईयाँ

रावण पुलस्त्य ऋषि के पुत्र थे, जो भगवान ब्रह्मा के मानसपुत्र (मन में जन्मे पुत्र) थे और बचपन में ही उन्होंने सभी वेदों में महारत हासिल कर ली थी। वह बडा होकर लंका का एक महान प्रशासक बना। अपनी युवावस्था में, अपने राज्य का विस्तार करने के लिए, वीर रावण ने दक्षिण भारत के राजाओं को राजा दशरथ (श्री राम के पिता) के खिलाफ विद्रोह करने के लिए उकसाया और यहाँ तक कि उसने एक युद्ध में राजा दशरथ को हराकर उनको लगभग मार ही डाला था। रानी कैकयी ने, जो स्वयं एक योद्धा थीं, राजा दशरथ की जान बचाई, जिसके बदले में राजा दशरथ ने उनकी दो इच्छाओं को पूरा करने का वचन दिया।

वह भगवान शंकर के इतने बङे भक्त थे कि वे कैलाश पर्वत पर गए और राक्षस ताल झील पर भगवान शंकर को प्रसन्न करने के लिए ध्यान किया और उन्हें अपना सिर अर्पित किया। रावण ने शिव तांडव स्तोत्रम की भी रचना की, जिसे भगवान शंकर के सभी भक्तों द्वारा आज के आधुनिक समय में भी गाया जाता है।

रावण से इतनी घृणा क्यों है?

रावण ने श्री राम और लक्ष्मण द्वारा अपनी बहन सूर्पनखा की अस्वीकृति और अपमान का बदला लेने के लिए माता सीता का हरण किया था।

रामायण और रामचरितमानस के पाठक रावण से इतनी नफरत क्यों नहीं करते?

कारण १

हिंदू धर्मग्रंथों को पढ़ने वाले व्यक्ति को यह ज्ञात है कि जो अपनी छोटे अपराधों से सीख नहीं लेते हैं, उनको भगवान एक दिन ऐसा कार्य करने के लिए उकसाते हैं जो अक्षम्य है और उच्चतम दंड के अधिकारी होते है। जब अयोध्या में हर कोई श्री राम के राज्याभिषेक की तैयारी कर रहा था, तो देवता, जो चाहते थे कि रावण को दंडित किया जाए, माता सरस्वती के पास गए और उनसे कुछ ऐसा करने का अनुरोध किया कि श्री राम का राज्याभिषेक रुक जाए और उन्हें जंगल में भेज दिया जाए जिसके कारण उनका रावण के साथ सामना हो। रावण के साथ मुठभेड़ और अंत में रावण के जीवन का अंत हो। श्री रामचरितमानस के “अयोध्या कांड” के निम्नलिखित श्लोक इस घटना का वर्णन करते हैं –

तिन्हहि सोहाइ न अवध बधावा। चोरहि चंदिनि राति न भावा॥
सारद बोलि बिनय सुर करहीं। बारहिं बार पाय लै परहीं॥

उन्हें (देवताओं को) अवध के बधावे नहीं सुहाते, जैसे चोर को चाँदनी रात नहीं भाती। सरस्वतीजी को बुलाकर देवता विनय कर रहे हैं और बार-बार उनके पैरों को पकड़कर उन पर गिरते हैं।

बिपति हमारि बिलोकि बड़ि मातु करिअ सोइ आजु।
रामु जाहिं बन राजु तजि होइ सकल सुरकाजु॥

(वे कहते हैं-) हे माता! हमारी बड़ी विपत्ति को देखकर आज वही कीजिए जिससे श्री रामचन्द्रजी राज्य त्यागकर वन को चले जाएँ और देवताओं का सब कार्य सिद्ध हो।

नामु मंथरा मंदमति चेरी कैकइ केरि।
अजस पेटारी ताहि करि गई गिरा मति फेरि॥

मन्थरा नाम की कैकेई की एक मंदबुद्धि दासी थी, उसे अपयश की पिटारी बनाकर सरस्वती उसकी बुद्धि को फेरकर चली गईं।

और फिर मंथरा कैकयी को राजा दशरथ द्वारा दी गई दो इच्छाओं का उपयोग करने के लिए उकसाती है और अपने बेटे (भरत) के लिए राज्याभिषेक और श्री राम के लिए जंगल में १४ साल के जीवन की मांग करती है।

इसका कहीं भी स्पष्ट रूप से उल्लेख नहीं किया गया है, लेकिन इस बात की प्रबल संभावना है कि देवताओं ने रावण को उसके अहंकार से अंधा कर दिया हो और उसकी पत्नी, बेटे, भाई, ससुर और अन्य शुभचिंतकों द्वारा दी गई सलाह को नहीं माना हो।

कारण २

क्योंकि रावण ने पहले कभी किसी स्त्री के साथ कोई गलत कार्य नहीं किया था, इसलिए वह स्वयं माता सीता का हरण करने में संकुचित था। श्री रामचरितमानस के “अरण्य कांड” से निम्नलिखित श्लोक माता सीता हरण के तुरंत बाद मन की स्थिति बताते हैं –

क्रोधवंत तब रावन लीन्हिसि रथ बैठाइ।
चला गगनपथ आतुर भयँ रथ हाँकि न जाइ॥

फिर क्रोध में भरकर रावण ने सीताजी को रथ पर बैठा लिया और वह बड़ी उतावली के साथ आकाश मार्ग से चला, किन्तु डर के मारे उससे रथ हाँका नहीं जाता था।

यहां हमें यह समझने की जरूरत है कि रावण क्यों डरा हुआ था? ऋषियों, उनके शत्रुओं और उनके अधीन विद्रोही राजाओं पर इतने अत्याचार करने के बावजूद, वह इतना भयभीत था कि उसके हाथ रथ हांकते समय भय से कांप रहे थे। क्या वह श्रीराम से डरते थे? शायद, ऐसा नहीं था। रावण एक महान योद्धा था और उस पर भगवान शिव का आशीर्वाद था। वह यह भी जानता था कि श्री राम उन राजा दशरथ के पुत्र थे, जिन्हें रावण बहुत पहले एक युद्ध में हराया था। शायद उसके डर का कारण यह था कि उसे पता था कि वह एक ऐसा अपराध कर रहा है जिसे समाज में सबसे जघन्य माना जाता था – एक महिला का अपहरण करना।

कारण ३

अपहरण करने के पश्चात रावण आसानी से माता सीता को अपने महल में ले जा सकता था। लेकिन इसके बजाय उसने माता सीता को अशोक वाटिका में रखा और वाटिका की महिला रक्षकों को माता सीता को डराने और उन्हें रावण का विवाह प्रस्ताव स्वीकार करने के लिए मजबूर करने का निर्देश दिया। अपहरण के बाद रावण ने माता सीता का हाथ तक नहीं छुआ था और जब भी वह अशोक वाटिका में जाता था अपनी पत्नी मंदोदरी को भी साथ में ले जाया करता था।

इससे पता चलता है कि रावण महिलाओं के प्रति अपनी धर्म से कभी डगमगाया नहीं।

माता सीता, जिन्हें रावण ने अपहरण कर लिया था, वास्तविकता में माता सीता की एक छवि मात्र थी, जिसे श्री राम ने रावण के खिलाफ अपना अभियान पूरा होने तक अग्नि देव को सौंप दिया था। इस घटना के बारे में इस ब्लॉग में पढ़ें

रावण ने खुद को ऐसे स्थान पर क्यों धकेला जहां देवता उसे मारना चाहते थे?

संभवतः निम्नलिखित कारणों से –

१. सनक ऋषि ने रावणऔर उनके तीन भाई ने राक्षसों के रूप में कई जन्मों में ऐसा भाग्य प्राप्त करने का श्राप दिया था

२. उसने अपने परिवार और प्रजा के लाभ के पहुँचाने के लिए दूसरे राजाओं का विद्रोह के लिए उकसाने जैसे अनुचित साधनों का इस्तेमाल किया था

३. वह ऋषियों, जो जंगलों में ध्यान करते थे, के प्रति क्रूर था और अक्सर उनके ध्यान और पूजा में बाधा डालता था।

४. वह देवताओं, विशेष रूप से इंद्र देव के लिए एक मजबूत चुनौती के रूप में उभरा था।

किसी मनुष्य को रावण के किन गुणों का अनुचरण करना चाहिए?

बिना किसी निर्णय के, हर घटना और व्यक्ति से सीखना एक बहुत अच्छी प्रवृत्ति है। रावण के जीवन से हमें ईश्वर का एक महान उपासक, धर्मी, विद्वान व्यक्ति, एक महान योद्धा, रक्षक और अपने आश्रितों का पालन-पोषण करने वाला बनना सीखना चाहिए।

रावण जैसा भाग्य होने से कैसे बचें?

हमें अपने अहं को नियंत्रण में रखना चाहिए, और जहाँ भी आवश्यकता हो, इसे आत्म-सम्मान के साथ संतुलित करना चाहिए। हमें, सभी परिस्थितियों में, अपने कार्यों के प्रति बहुत सतर्क रहना चाहिए, विशेष रूप से उन कार्यों के प्रति जो दूसरों को नुकसान पहुँचा सकते हैं। हमें अपनी ऐसी गलतियों की पहचान और साहसपूर्वक अपनी गलतियों को स्वीकार करना चाहिए और जल्दी से अपने गलत कर्मों को सुधारना चाहिए। यदि यह जल्दी नहीं किया गया, तो छोटे-छोटे दुष्कर्म एक दिन हमें एक बड़े दुष्कर्म की ओर ले जाएंगे और उसके पश्चात हमें एक ऐसी जगह ले जाएंगे जहाँ से हमारे विनाश का सामना करने के अलावा कोई और विकल्प नहीं बच जाएगा।

मेरे पास ऐसे कई ब्लॉग हैं जो श्री राम के जीवन से मिली अच्छी सीख को सरल भाषा में समझने में हमारी मदद करेंगे। मैं उन्हें जल्द ही प्रकाशित करने की प्रयत्न कर रहा हूँ। तब तक, यदि इसमें आप की रुचि है तो आप “मेरे विष्णु” ऐप पर हिंदी और अंग्रेजी भाषाओं में रामचरितमानस पढ़ सकते हैं। आप इस लिंक से एंड्रॉइड ऐप डाउनलोड कर सकते हैं – https://t.ly/mvsn या ऐप डाउनलोड करने के लिए निम्न चित्र में दिया गया क्यू-आर कोड को स्कैन करें।

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